जानिए इतिहास हमीरपुर ज़िले का

हिमाचल क्राइम न्यूज़

हमीरपुर। ब्यूरो 



हमीरपुर का इतिहास कटोच वंश के साथ जुड़ा हुआ है जिनका प्राचीन काल में रावी और सतलुज नदियों के बीच के क्षेत्र पर शासन था | “पुराणों” और पाणिनी की “अष्टाध्यई” के अनुसार महाभारत काल के दौरान, हमीरपुर पुराने जालंधर-त्रिगर्त साम्राज्य का एक हिस्सा था। पाणिनी ने इस राज्य के लोगों को महान योद्धाओं और सेनानियों के रूप में संदर्भित किया। जैसा कि भारतीय रक्षा बलों में इस क्षेत्र के लोगों की बड़ी संख्या से ऐसा प्रतीत होता है कि उन लोगों की परंपरा आज भी जारी है, । यह माना जाता है कि प्राचीन काल में, गुप्त वंश के शासक ने देश के इस हिस्से के ऊपर अपनी संप्रभुता स्थापित की थी। मध्य युग के दौरान, संभवतः यह क्षेत्र मोहम्मद गज़नी, तिमुरलंग और सुल्तानों के नियंत्रण में रहा । लेकिन समय बीतने के साथ, सभी उपरोक्त शासकों के चले जाने के बाद कटोच शासक हमीर चंद के समय में यह क्षेत्र ‘राणाओं’ (पहाड़ी सामंत प्रमुखों) के नियंत्रण में रहा, जिनमें मेवा, मेहलता और धतवाल के राणाओं का नाम उल्लेखनीय रहा है । प्राय यह सामंती प्रमुख एक-दूसरे के खिलाफ झगड़ते रहते थे।


 यह केवल कटोच राजवंश था जिसने इन राणाओं को अपने नियंत्रण में रखा, ताकि एक व्यवस्थित समाज को सुनिश्चित किया जा सके। राजा हमीर चंद जिन्होंने 1700 ई०पू० से 1740 ई०पू० की अवधि के दौरान इस क्षेत्र पर शासन किया, के समय में कटोच राजवंश का अधिपत्य रहा ।


राजा हमीर चंद ने हमीरपुर में किले का निर्माण किया और उन्हीं के नाम पर वर्तमान शहर का नाम हमीरपुर पड़ा । राजा संसार चंद – द्वितीय का समय हमीरपुर के लिए स्वर्णिम काल रहा | उन्होंने ‘सुजानपुर टिहरा’ को अपनी राजधानी बनाया और इस जगह पर महलों और मंदिरों का निर्माण करवाया। राजा संसार चन्द ने 1775 ई०पू० से 1823 ई०पू० तक यहाँ पर शासन किया। उन्होंने जालंधर-त्रिगर्त के पुराने साम्राज्य की स्थापना का सपना देखा, जो उनके पूर्वजों के समय में उनके अधीन था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, उन्होंने दो बार इस हेतु असफल प्रयास भी किए । राजा रणजीत सिंह का उदय उनकी इस महत्वाकांक्षा में एक बड़ी बाधा साबित हुआ। इसलिए, उन्होंने इसे छोड़ कर अपना ध्यान स्थानीय पहाड़ी राजाओं की तरफ केन्द्रित किया | उन्होंने मंडी राज्य को अपने अधीन किया और राजा ईश्वरी सेन को 12 साल तक नादौन में कैद कर रखा । उन्होंने सतलुज के दाहिने किनारे पर स्थित बिलासपुर राज्य के भाग पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया और सुकेत के शासकों को भी वार्षिक भेंटराशि देने के लिए बाध्य कर दिया । संसार चंद की उन्नति से चिंतित होकर, सभी पहाड़ी शासकों ने आपस में संधि कर ली और गोरखाओं को कटोच शासक की अनियंत्रित शक्ति को रोकने के लिए आमंत्रित किया । संयुक्त सेनाओं ने हमीरपुर के महल मोरियां में संसार चंद की सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ीं । राजा संसार चंद की सेना ने संयुक्त सेना को बुरी तरह हराया और उन्हें सतलुज नदी के बाएं किनारे तक पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया । राजा संसार चंद द्वारा अपने जनरल गुलाम मुहम्मद की सलाह पर सेना को रोहिल्ला के साथ बदलने के कारण उनकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ा गई । सेना को बदलने का यह प्रयास बहुत ही कमज़ोर कड़ी साबित हुआ। कटोच सेना की कमजोरी के बारे में सुनकर, 1806 ई०पू० में संयुक्त सेना ने दूसरी लड़ाई में कांगड़ा की सेना को महल मोरियां में बुरी तरह परास्त किया । राजा संसार चंद की इस हार के कारण उनके परिवार ने कांगड़ा किले में शरण ली । गोरखाओं ने कांगड़ा किले को पूरी तरह घेर लिया और कांगड़ा और महल मोरियां के किले और जंगलों के बीच के क्षेत्र के गांवों को नष्ट कर दिया और लोगों को बेरहमी से लूटा । फलस्वरूप गोरखाओं द्वारा नादौन जेल में कैद इश्वरी सेन को मुक्त करवा लिया गया | किले की घेराबंदी तीन साल तक जारी रही। राजा संसार चंद के अनुरोध पर राजा रंजीत सिंह ने गोरखाओं के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया और उन्हें 1809 ई०पू० में हरा दिया । लेकिन राजा संसार चंद को इसके लिए भारी कीमत चुकानी पड़ी जिससे उन्हें कांगड़ा किला और 66 गांवों को सिखों को खोना पड़ा । ब्रिटिश सेना द्वारा 1846 ई०पू० में पहले एंग्लो-सिख युद्ध की हार तक सिखों ने कांगड़ा और हमीरपुर तक अपनी संप्रभुता को बनाए रखा । तब से लेकर ब्रिटिश साम्राज्य के अंत तक इस क्षेत्र पर अंग्रेजों का वर्चस्व जारी रहा । संसार चंद एक निधन बहुत ही गुमनामी में हुआ । अंग्रेजों को हटाने की असफल कोशिश में उनके उत्तराधिकारी (पौत्र) राजा प्रमोद चंद ने सिखों और अन्य शासकों के साथ गठबंधन की कोशिश की ।


अंग्रेज शासकों ने कांगड़ा जिला का गठन किया जिसमें हमीरपुर, कुल्लू और लाहौल-स्पिति के क्षेत्रों को भी सम्मिलित कर दिया गया। 1846 ई०पू० में, कांगड़ा के कब्जे के बाद, नादौन को तहसील मुख्यालय बनाया गया था । इस समझौता को 1868 ई०पू० में संशोधित किया गया, और परिणामस्वरूप तहसील मुख्यालय नादौन से हमीरपुर में स्थानांत्रित कर दिया गया । 1888 ई०पू० में, हमीरपुर और कांगड़ा के कुछ क्षेत्रों का विलय करके पालमपुर तहसील का गठन किया गया | 1 नवंबर 1966 को पंजाब के पुनर्गठन तक, हमीरपुर पंजाब प्रांत का एक हिस्सा बना रहा जिसे पंजाब के पुनर्गठन के परिणामस्वरूप हिमाचल प्रदेश में मिला दिया गया। 1 सितंबर 1972 को सम्मिलित किए गए क्षेत्रों और जिलों के पुनर्निर्माण के परिणामस्वरूप, हमीरपुर और बरसर दो तहसीलों के साथ हमीरपुर का एक अलग जिले के रूप में गठन गया | 1980 में सुजानपुर टीहरा, नादौन और भोरंज उप तहसीलों का गठन किया गया । 1991 की जनगणना में नादौन और भोरंज तहसील बना दी गई । वर्तमान में, जिले में हमीरपुर, बड़सर, नादौन, भोरंज, सुजानपुर टीहरा, बमसन (स्थित टौणी देवी), ढटवाल (स्थित बिझड़ी) एवं गलोड़ नामक 8 तहसीलें और कांगू एवं भोटा नामक 2 उप-तहसीलें हैं। यह हमीरपुर, बड़सर, नादौन, भोरंज और सुजानपुर नाम के 5 उप-मण्डलों के अंतर्गत आती हैं। हमीरपुर उप-मण्डल में तहसील हमीरपुर और बमसन (स्थित टौणी देवी) शामिल है; बड़सर उप-मण्डल में तहसील बड़सर, ढटवाल (स्थित बिझड़ी) और उप-तहसील भोटा शामिल हैं; नादौन उप-मण्डल में तहसील नादौन, गलोड़ और उप-तहसील कांगू शामिल हैं । भोरंज उप-मण्डल में तहसील भोरंज का समावेश है जबकि सुजानपुर उप-मण्डल में तहसील सुजानपुर टीहरा शामिल है। जिला को हमीरपुर, बिझड़ी, भोरंज, नादौन, सुजानपुर और बमसन (स्थित टौणी) 6 विकास खंडों में बांटा गया है ।


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